आदिवासियों की ‘चिपकू’ औषधि को मिला वैज्ञानिक प्रमाण, पथरी-टीबी के इलाज में खुली नई राह

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भोपाल। आदिवासियों की सदियों पुरानी पारंपरिक औषधीय जानकारी अब आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में नई राह खोल सकती है। भोपाल स्थित पं. खुशीलाल शर्मा आयुर्वेद महाविद्यालय के विशेषज्ञों ने महाकोशल अंचल में प्रचलित एक पौधे—स्थानीय भाषा में ‘चिपकू’—को पथरी, मूत्र रोग और क्षयरोग (टीबी) के उपचार में प्रभावी पाया है।

गोंड और बैगा जनजातियां पीढ़ियों से इस पौधे का उपयोग बुखार, त्वचा रोग और मूत्र संबंधी समस्याओं के इलाज में करती रही हैं। इसकी पहचान इसके छोटे कंटीले फलों से होती है, जो मवेशियों के शरीर से चिपक जाते हैं, इसी कारण इसे ‘चिपकू’ नाम मिला। इसका वैज्ञानिक नाम जैन्थियम स्ट्रूमेरियम लिन है, जो औषधीय पौधों के उसी कुल में आता है जिसमें ‘गोखरू’ शामिल है।


शोध की शुरुआत आदिवासी गांवों से

महाविद्यालय के द्रव्य गुण विभाग की प्रमुख शोधकर्ता डॉ. अंजली जैन ने बताया कि उनकी टीम ने शहडोल, अनूपपुर, डिंडौरी और बालाघाट जिलों में आदिवासी समुदायों से पारंपरिक औषधीय पौधों की जानकारी एकत्र की। इसी दौरान ‘चिपकू’ के औषधीय गुणों का पता चला।


प्रयोगशाला में मिले सकारात्मक परिणाम

प्रारंभिक लैब परीक्षणों में यह पौधा मूत्रवर्धक, ज्वरनाशक और सूजन कम करने में प्रभावी पाया गया।

  • खुराक परीक्षण: मरीजों को 200 मिग्रा/किग्रा और 400 मिग्रा/किग्रा की दो अलग-अलग खुराक दी गईं।
  • परिणाम: मूत्र की मात्रा और उसमें मौजूद तत्वों के उत्सर्जन में स्पष्ट वृद्धि देखी गई।
  • सुरक्षा: अधिक खुराक पर भी किसी प्रकार की तीव्र विषाक्तता (Acute Toxicity) के लक्षण नहीं पाए गए।

डॉ. जैन के अनुसार, “यह पौधा पारंपरिक उपयोग के साथ-साथ वैज्ञानिक परीक्षणों में भी सुरक्षित और प्रभावी साबित हो रहा है।”


टीबी पर भी शोध जारी

विशेषज्ञ अब इस पौधे से बनी औषधि का क्षयरोग (टीबी) के इलाज में संभावित उपयोग खोज रहे हैं। लैब परीक्षणों में अनुकूल परिणाम आने के बाद इसका पहला पशु-आधारित परीक्षण चूहों पर किया जाएगा। यदि यह चरण सफल रहा तो मानव क्लिनिकल ट्रायल की प्रक्रिया शुरू होगी।


आदिवासी ज्ञान को मिला वैज्ञानिक आधार

महाविद्यालय के प्राचार्य डॉ. उमेश शुक्ला के शब्दों में—

“यह शोध केवल एक औषधीय पौधे की खोज नहीं है, बल्कि आदिवासी समुदायों के अमूल्य ज्ञान को वैज्ञानिक आधार प्रदान करने का प्रयास है। यदि आगे के परीक्षण सफल रहे, तो यह खोज आम जनता के लिए भी वरदान साबित होगी।”


क्यों है यह खोज अहम?

  • आदिवासी समुदायों के पारंपरिक ज्ञान को संरक्षित करने का अवसर
  • प्राकृतिक और सुरक्षित उपचार विकल्प
  • ग्रामीण और दूरस्थ इलाकों में सस्ती चिकित्सा सुविधा
  • आधुनिक दवा निर्माण में नई संभावनाएं

‘चिपकू’ पर चल रहा यह शोध इस बात का प्रमाण है कि प्रकृति में छिपी अनगिनत जड़ी-बूटियां आधुनिक रोगों से लड़ने में अहम भूमिका निभा सकती हैं। आदिवासी परंपराओं में सुरक्षित रखी यह औषधीय धरोहर आने वाले समय में लाखों लोगों के लिए जीवनरक्षक साबित हो सकती है।


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